प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के साथ ही कई बड़े नारे दिए, उनमें से एक था ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा। लेकिन उनके साढ़े चार साल के कार्यकाल में न तो बेटियों की सुरक्षा के लिए कोई बड़े कदम उठाए गए और न ही उन्हें पढ़ाने के लिए कोई ठोस योजना बनाई गई।
सरकार ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारों वाली होर्डिंग्स और बैनर में तो ख़ूब ख़र्च किया, लेकिन इस नारे को अमली जामा पहनाने की दिशा में कोई बड़ा बजट जारी नहीं किया।
अपने विज्ञापनों पर पांच हज़ार करोड़ ख़र्च करने वाली केंद्र की मोदी सरकार ने बेटियों को पढ़ाने के लिए न तो पर्याप्त मात्रा में नए कॉलेज बनवाए और न ही उनकी शिक्षा में प्रोत्साहन के लिए किसी नई स्कॉलरशिप की घोषणा की।
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ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के नेता एवं जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने ट्विटर के ज़रिए कहा,
“अगर मोदी जी को बेटियों की चिंता होती तो वे पाँच हज़ार करोड़ रुपये विज्ञापनों पर बर्बाद करने के बजाय उनके लिए कॉलेज या स्कूल खोलते जैसे सावित्रीबाई फुले ने खोला था। सिर्फ़ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के विज्ञापन देने, होर्डिंग लगाने और “मन की बात” करने से समाज में कोई बदलाव नहीं आता”।
पीएम मोदी को देश की बेटियों की कितनी चिंता है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके हितों की संरक्षा के लिए बनीं राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्लू) में सदस्य ही नहीं हैं।
एक अध्यक्ष और पांच सदस्यों के पदों के प्रावधान वाले इस आयोग में अध्यक्ष के सिवा सभी पांच सदस्य के पद लंबे अरसे से खाली पड़े हैं।
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महिलाओं की समस्या और उनकी परेशानियों को सुनने वाले इस आयोग में जब सदस्य ही नहीं हैं तो फिर महिलाएं अपनी समस्याएं लेकर किसके पास जाएंगी। क्या महिलाओं की समस्या के निवारण के बग़ैर महिला सशक्तिकरण की बात करना उचित है?
वहीं महिलाओं की सुरक्षा की बात करें तो टीवी और अख़बारों की सुर्खियां ही मोदी सरकार के ‘बेटी बचाओ’ के नारे की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं।
कभी बेटी के रेप में बीजेपी विधायक का नाम सामने आता है तो कभी बेटी का रेप करने वालों के साथ बीजेपी के मंत्री खड़े नज़र आते हैं। ऐसे में मोदी सरकार के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे को जुमला कहना ग़लत नहीं होगा।