वाराणसी
वाराणसी
आकाश पांडेय

बनारस के बजरडीहां के रहने वाले वकील अहमद अपने काम पर लौट चुके हैं। उनका पूरा परिवार गमगीन है। वकील अहमद के चेहरे से ही बेटे को खोने का गम साफ तौर पर झलक रहा है लेकिन वो गम के कारण रूक नहीं सकते। उनका परिवार दिहाड़ी मजदूरी के भरोसे चलता है। वकील का ऐसा परिवार है जो रोज कुआँ खोदता है और पानी पीता है। अगले दिन वकील फिर से सुबह से ही कुआँ खोदना शुरू करते है ताकि रात को उनके परिवार को रोटी नसीब हो सके।

वकील बजरडीहां में काम नहीं करते हैं वो कहीं बाहर दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। वकील अहमद के चार लड़के हैं जिसमें एक बारह साल, दूसरा ग्यारह साल, तीसरा नौ साल तथा चौथा छ: साल का है।

बीते 20 दिसम्बर की दोपहर में जुम्मे की नमाज के बाद बजरडीहां में सीएए और एमआरसी के खिलाफ इकट्ठा होने लगे। कुछ लोग इकट्ठा हुए तो लोग वहीं बैठ गए। इसके बाद वहाँ भीड़ बढ़ने लगी। जब ज्यादा संख्या में लोग इकट्ठा हो गए तो लोगों ने शांतिपूर्ण तरीके से मार्च करना शुरू किया। मार्च को पुलिस ने रोका तो लोग वहीं बैठ गए। अब तक सब शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा था। अचानक पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया।

लाठीचार्ज के दौरान पूरी भीड़ में अफरा-तफरी मच गई। लोग भागने लगे। जिसको जिधर जगह मिली वो उधर भागा। जिसको जिसकी पीठ पर पैर रखकर भागने का मौका मिला वो वहां से भागा। इस भीड़ में वकील अहमद का तीसरा बेटा नौ साल का सागिर अहमद भी था। जब अफरा-तफरी मची और वो भागने लगा उसी दौरान वो नौ साल का मासूम भीड़ में ही जमीन पर गिर गया । उसके बाद वो उठना चाहता था लेकिन उठ नहीं पाया। न जाने कितने पैर उसके शरीर को रौंद चुके थे, जब वो मरा। न जाने कितनी बार चीखा होगा पर उस अफरा-तफरी वाली भीड़ में उसकी चीख कोई सुन नहीं पाया। ये घटना है बीस दिसम्बर को दोपहर लगभग साढ़े तीन की।

वाराणसी में मची भगदड़ के बाद की दर्दनाक तस्वीर,  साभार-हिंदुस्तान

परिवार को किसी ने कोई खबर नहीं दी। देर रात तक जब सागिर घर नहीं आया तो परिवार ने खोज-बीन शुरू की। खोज-बीन करते हुए वो लोग लगभग ग्यारह बजे रात में बीएचयू ट्रामा सेंटर पहुंचे वहाँ पुलिस ने ढुलमुल तरीके उन्हें बताया कि हां एक बच्चा है तो पर उसकी क्या हालत है, पुलिस को नहीं पता। देर रात लगभग तीन बजे पुलिस ने सागिर की लाश उसके परिवार के हवाले करते हुए कहा कि जल्द से जल्द दफना दो। गरीब परिवार ने पुलिस के डर से सुबह तड़के साढ़े चार बजे के लगभग ही उस बच्चे को दफना दिया। उस लाश का पोस्टमार्टम हुआ है या नहीं, इसकी कोई रिपोर्ट नहीं है। पुलिस का कहना कि मार्च के दौरान भीड़ द्वारा पत्थरबाजी किया गया है जबकि लोगों को कहना है कि उस दिन कोई पत्थरबाजी नहीं हुई थी।

सागिर के दादा बताते हैं कि-” परिवार बहुत ही गरीब है। दिहाड़ी मजदूरी करके खाने कमाने वाले लोग हैं। परिवार में वकील और उसके चार लड़कों के साथ वकील के माता-पिता भी हैं। सागिर की अम्मी पारिवारिक कलह के कारण घर छोड़कर जा चुकी है।”सागिर के दादा ने रूंधे गले से बताया कि जब देर रात तक वो घर नहीं आया तो उसकी खोज-बीन हुई तो ये पता चला। पुलिस को लेकर वो किसी भी तरह की कोई बात नहीं करना चाहते हैं। ये दिखा रहा है कि ये परिवार पुलिस से कितना डरा हुआ है। ये पुलिस की तानाशाही को साफ तौर पर दिखा रहा है।

बजरडीहां बनारस में बहुत ही पिछड़ा इलाका माना जाता है। मुस्लिम कितने पिछड़े हैं इसका आभास यहाँ होता है। यहाँ बुनकर ज्यादा रहते हैं।लोगों का कहना है कि इस इलाके में कोई सरकारी स्कूल नहीं है। प्राइवेट स्कूल है जो बहुत ही महंगा है। जहाँ गरीब, बुनकर आदि लोग अपने बच्चों को नहीं पढ़ा सकते। ऐसी स्थिति में इधर के बहुत से बच्चे पढ़ नहीं पाते। सागिर भी स्कूल नहीं जाता था। उसके तीनों भाई भी स्कूल नहीं जाते हैं।

सागिर की मौत 20 दिसंबर को ही हो गई थी लेकिन उसके परिवार से मिलने अब तक न तो कोई मीडिया का आदमी गया है और न ही कोई नेता। हद तो तब हो जाती है मरने के बाद से ही सागिर को गुड्डू नाम से प्रसारित किया जा रहा था। घरवालों से बात के दौरान ये पता चला कि सागिर का कभी गुड्डू नाम रहा ही नहीं है। सागिर के परिवार पर पुलिस उसकी मौत के बाद किस तरह से दबाव बनाए हुए है इसका अंदाजा तो इस बात से ही हो रहा है कि सागिर का परिवार पुलिस के खिलाफ कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हो रहा है।

सागिर अब वापस कभी नहीं आएगा। परिवार बहुत ही गरीब है अतः वो डरकर पुलिस के खिलाफ कोई आवाज भी नहीं उठाएंगे। उनके बच्चे पढ़ भी नहीं सकते अत: उनका भविष्य भी उसी गरीबी में बीतेगा ये साफ तौर पर दिख रहा है लेकिन सागिर की मौत बहुत सारे सवाल छोड़ गई है।

क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि किसी बच्चे की मौत का हमें कोई फर्क नहीं पड़ता? क्या लोगों की नजरों में सागिर के जीवन का कोई मोल नहीं है? क्या हमारा मीडिया भी इतना असंवेदनशील हो गया है कि एक बच्चे की मौत का उसपर कोई असर नहीं हो रहा? क्या पुलिस महकमे को अधिकारी और सिपाहियों के अंदर इतनी भी संवेदनशीलता नहीं बची की उसके परिवार को सही -सही बताया जाए और उसका सही सही पोस्टमार्टम कराया जाए?

इसके साथ और भी कुछ सवाल हैं जो सागिर के भाई , बाप, दादा-दादी पूछ रहे हैं। वो पूछ रहे हैं कि क्या गरीबों की जान की कोई कीमत नहीं होती? क्या गरीब और उसके बच्चे ऐसी मौत मरने के लिए पैदा होते हैं?इनके सवालों के जवाब हममें से किसी के पास नहीं हैं और यदि इनके दुख को हम अगर महसूस नहीं कर पा रहे हैं तो यकीन मानिए हम लोग मर चुके हैं और सागिर के भाईयों, उसके बाप-दादा से कभी नजरें नहीं मिला पाएंगे।

(आकाश पांडेय IIMC दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं, वो BHU के पूर्व छात्र रहे हैं. घटना से जुड़ी तमाम  जानकारी उनके द्वारा व्यक्तिगत स्तर पर की गई पड़ताल पर आधारित है।)

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