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तेज बहादुर सिंह

सोचिए लौटकर जाने वाले ये लोग वापस नहीं आए तो क्या होगा ?

देश में 21 दिनों का लॉकडॉउन हुआ. हमने खाने-पीने का सामान जमा किया. मास्क खरीदें. सैनेटाइज़र खरीदा. अपने-अपने घरों में बंद हो गए. इसी में समझदारी भी थी. कोरोना वायरस महामारी को रोकने का यही एक इलाज भी था.
लेकिन एक दो दिन सब नॉर्मल रहा. फिर? फिर तस्वीरें आना शुरू हुई. इक्का-दुक्का लोग अपने सर पर सामान लादे छोटे-छोटे बच्चों के साथ पैदल अपने घरों की ओर लौट रहे थे.

देखते-देखते ये संख्या बढ़ने लगी अब ये लाखों के करीब हो गई है. लोगों का हुजुम सड़कों पर चलने लगा. इस उम्मीद में कि अपने घर पहुंच गए तो भूखे तो नहीं मरेंगें. कौन हैं ये लोग ? और कहां जा रहे हैं? ये जाने को मजबूर क्यों हुए ? क्यों ये दिल्ली से बरेली, मथुरा, मुरादाबाद, गोरखपुर, बेगुसराय, मधुबनी और न जाने कहां-कहां जा रहे हैं. वो भी पैदल.

ये मजदूर हैं. हां वही मजदूर जो सुबह-सुबह आप जब सो रहे होते हैं तो आपकी कॉलोनियां साफ कर जाते हैं. आपका मैला साफ करने के लिए बिना मास्क और जरूरी समान के नाले में उतर जाते हैं. इनमें आपके घरों में रोज साफ-सफाई करने वाली महिलाएं हैं. वो मेड हैं जो सुबह-शाम आपका खाना बनाकर जाती हैं कि आप कॉलेज या ऑफिस जाने से पहले और आने के बाद भूखे न रह जाएं. वो डिलीवरी वाला लड़का है जिसे दो बजे रात को आपके मोबाईल के एक इशारे पर खाना लेकर आपके सामने हाजिर होना पड़ता है. वो गॉर्ड हैं जो आपके अपार्टमेंट और सोसायटी की दिन-रात रखवाली करते हैं. वो ऑटोड्राइवर हैं जो मेट्रो से निकलते ही आपके सामने खड़े रहते हैं. इसके अलावा और न जाने कौन-कौन जो एक दिन के न आए तो आपको पूरी जिंदगी लॉकडॉउन जैसी ही हो जाएगी. ये वही लोग है जो सड़को के किनारे कहीं अपनी जिन्दगी बिताने को मजबूर हैं.

क्या सरकारों को ये सब पहले से नहीं समझना चाहिए था? लेकिन सरकार ने पहले इन्हीं लोगों से तालियां और थालियां बजावाई. और अब छोड़ दिया है सड़कों पर पैदल चलकर घर जाने के लिए. जब हो हल्ला मचा है तो कोई बस सेवा शुरू कर रहा है. उसका भी किराया वसूला जा रहा है. ऐसे में बस सेवा का मतलब क्या हुआ फिर? लोगों के पास पैसे नहीं थे, खाने को नहीं था तभी तो वो सब छोड़कर जाने को मजबूर हुए हैं.

क्या सरकारें नहीं जानती हैं कि हमारे देश में एक ऐसा हिस्सा है जो रोज खाता-कामाता है. उसके लिए लॉकडॉउन में क्या व्यवस्था होनी चाहिए? इसके बारे में पहले नहीं सोचा जाना चाहिए था? ये मैनेजमेंट के लेवल पर सरकार का बुरी तरह से फेलियर है. जब समस्या ऐसी हो जाती है कि स्थिति काबू से बाहर हो जाए तब जाकर सरकारें नींद से बाहर आती हैं. और ये समस्या सिर्फ एक राज्य की नहीं है. ये समझने की जरूरत है कि लगभग सभी राज्यों में मौजूद प्रवासी मजदूरों का यही हाल है.

खैर, अब आप जरा खुद के बारे में सोचिए. ये लोग जो लौटकर जा रहे हैं अगर वापस नहीं आए तो क्या होगा? आप अभी जो नेटफ्लिक्स और चिल! कर रह हैं कर पाएंगे क्या? ऐसा न हो कि नेटफ्लिक्स और चिल की जगह कहीं बर्तन साफ कर रहे हों, घरों में सफाई कर रहे हों, खाना बना रहे हों. कॉलोनियों का कूड़ा न उठने से परेशान हों. सोसायटी की सिक्योरिटी की चिंता सता रही हो. नाले भर गए हों. मैला आपके आने जाने वाले रास्तों पर तैर रहा हो. शहर-भर में कोहराम मच गया हो. डेली लाइफ से कुछ जरूरी लोग गायब हो गए हो जिनकी आपको आदत और जरूरत हो गई है।

बहुत संभव है कि ऐसा ही कुछ हो क्योंकि जिस स्थिति में ये लोग शहर छोड़कर जा रहे हैं. लौटने से पहले हजारों बार सोचेंगे. जिस भावना के साथ लोग वापस जा रहे हैं कि बस अपने घर पहुंचना है. ऐसे में वापस लौटकर आ पाने की हिम्मत बना पाना उनके लिए बहुत मुश्किल है. जब वो हजारों किलोमीटर चलकर अपने घर पहुंचे हो. और साथ ही वापस से उस शहर, सरकार और लोगों पर भरोसा कर पाना उनके लिए बहुत मुश्किल हो जाएगा जिसने उन्हें भूखा और असहाय सड़कों पर छोड़ दिया।

(तेज बहादुर सिंह आईआईएमसी दिल्ली में हिंदी पत्रकारिता के छात्र हैं)

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