यूपी के मुख्यमंत्री ने दिल्ली के मुख्यमंत्री को सुनो केजरीवाल संबोधित किया है। निश्चित रुप से यह भाषा उचित नहीं है। क्या प्रधानमंत्री जो खुद को लोकतंत्र और संघवाद का चिंतक बताते हैं, इस भाषा पर एतराज़ ज़ाहिर कर पाएँगे? नहीं कर पाएँगे। उन्हें लगता है कि बिना यह सब किए स्टेंट्समैन बन जाया जाता है।

योगी जी की भाषा निश्चित रुप से तीन तीन बार मुख्यमंत्री चुने गए संवैधानिक व्यक्ति को बुरी लग सकती थी। अब उन्होंने भी सुनो योगी कह कर संबोधित कर दिया है। इसके अलावा केजरीवाल के पास क्या विकल्प था? अपने सम्मान की रक्षा में लिख गए। नहीं लिखते तो अच्छा ही रहता मगर योगी जी बताएँ कि इस भाषा में संबोधित करने का ख़्याल कहाँ से आया?

क्या यह बीजेपी की सामूहिक रणनीति का हिस्सा है ताकि गर्मी वाला विवाद पैदा हो और बहस छिड़ जाए। वैसे योगी जी ने सुनो उद्धव नहीं कहा। अब इस एंगल से देखेंगे तो खेल समझ आएगा। क्या उनकी नज़र में केजरीवाल हल्के हैं जो उन्हें इस भाषा से निशाना बनाया गया है? एक ही बात के लिए सुनो उद्धव नहीं , सुनो शरद पवार नहीं, लेकिन सुनो केजरीवाल!

प्रधानमंत्री ने देश और योग को बदनाम करने के नाम पर विपक्ष पर हमला बोला। क्या इसलिए किया गया क्योंकि पश्चिम यूपी में मतदान क़रीब आ गया है और माहौल में गर्मी नहीं आ सकी है? भाषण में जोश नहीं आ रहा और कार्यकर्ता ठंडा पड़ा हुआ है। क्या उसमें जोश पैदा करने के लिए नेतृत्व पर हमला या विपक्ष पर हमला जैसा जाल बुना गया है?

पहले चरण में पश्चिम यूपी में जिस तरह के संयम का परिचय दिया है उसकी तारीफ़ की जानी चाहिए। पश्चिम किसी को वोट करें लेकिन वोट से पहले हिन्दू मुस्लिम मैच को ठुकरा दिया है। इसमें बड़ा योगदान राकेश टिकैत का है।

अब टिकैत से हार कर बीजेपी तरकश से एक और पुराना तीर निकाल रही है। मोदी बनाम शेष का तीर। कमाल है लेकिन ये मैच क्या सुनो केजरीवाल बनाम सुनो योगी के रुप में खेला जाएगा। सुनो जनता, यह बहुत दुखद है।

(ये लेख वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है।)

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