आज रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की तीसरी पुण्यतिथि है। 8 दिसंबर 2015 को जब अचानक ही ‘विद्रोही’ मौत हुई थी, तब सोशल मीडिया पर भावनाओं का सैलाब आ गया था। लेकिन सवाल तो ये है कि ‘विद्रोही’ थे कौन? क्यों हम उनकी पुण्यतिथि याद कर रहे हैं?

Related imageआसमान में धान बोने वाले रमाशंकर ‘विद्रोही’ एक जनकवि थे। ऐसे जनकवि जिन्होंने अपनी अंतिम सांस भी जनआंदोलन में ही ली। ऐसे जनकवि जो पढ़ने और डिग्री लेने जेएनयू आए थे लेकिन बिना डिग्री लिए ही JNU के विद्रोही इतिहास के नायक बन गए।

ऐसे जनकवि जिनके पास अपना कोई घर ठिकाना नहीं था लेकिन 1000 एकड़ के JNU में किसी अभिभावक की तरह टहलते मिल जाते थे। ऐसे जनकवि जिनका परिवार, जिनकी दुनिया JNU के छात्र थे।

Related imageइन्हीं छात्रों को उनका हक दिलाने 8 दिसंबर 2015 को ‘विद्रोही’ यूजीसी पहुंचे थे। दरअसल उन दिनों अक्यूपाई यूजीसी नाम से चल एक आंदोलन चल रहा था। जो फेलोशिप खत्म करने, शिक्षा का निजीकरण करने और मौजूदा सरकार की नीतियों के खिलाफ था।

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‘विद्रोही’ बहुत देर तक अपनी कविताओं से छात्रों के विद्रोह को आंच देते रहे। लेकिन दोपहर होते-होते उन्हें लगा कि उनकी तबियत कुछ खराब हो रही है। ‘विद्रोही’ धरनास्थल पर ही लेट गए। दोपहर करीब दो बजे उनके शरीर में अचानक कुछ हरकत हुई और नब्ज रुक गई। डॉक्टरों ने मौत का कारण ब्रेन डेड बताया।

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वो जनकवि मर गया जो कहता था कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें, फिर भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे, फिर तब मैं आराम से वसंत ऋतु में मरूंगा।

विद्रोही की कविता जन-गण-मन…

‘मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा’

विद्रोही की मौत के बाद सोशल मीडिया पर भावनाओं का सैलाब आ गया था। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने लिखा था…

“प्रोफ़ेसरों। रमाशंकर यादव नाम का वह मासूम लड़का सुल्तानपुर, यूपी से पढ़ाई करने के लिए जेएनयू, दिल्ली आया था। तुमने रमाशंकर यादव को पढ़ाई पूरी नहीं करने दी। वह अपनी डिग्री कभी नहीं ले पाया। क्या विद्रोही प्रतिभा से डरते थे तुम? अपने निठल्लेपन का अहसास था तुम्हें? अपने बौद्धिक बौनेपन का भी?

लेकिन यह तो तुम्हें दिख रहा होगा प्रोफेसर कि एक तरफ अपार लोकप्रियता बटोरे विद्रोही की रचनाएं हैं और दूसरी तरफ़ हैं तुम्हारी किताबें, जो सिलेबस में न हों, तो चार लोग उन्हें नहीं पढ़ेंगे। विद्रोही बिना डिग्री के तुमसे कोसों आगे निकल गया। छूकर दिखाओ। लिखो वैसी एक रचना.. है दम?”

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‘विद्रोही’ की रचनाएं अब जनआंदोलनों का हथियार बन चुकी हैं। ‘विद्रोही’ धर्म और अंधविश्वास की जमकर मज़म्मत करते थे। वो अपनी कविता ‘नई खेती’ में लिखते हैं…

‘मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।’

 

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