कोई राजनीतिक दल चाहे या न चाहे मगर भारतीय राजनीति ‘जाति’ की धुरी पर घूमती है। ऐसा कहा जा सकता है कि ‘जाति’ ही वो जरिया है जिसके माध्यम से एक आम भारतीय नागरिक को लोकतांत्रिक राजनीति की प्रक्रिया से जोड़ा जाता है।

और जब राजनीति ‘जाति’ के सवाल पर होती है तो मुद्दा आरक्षण का उठता है। आरक्षण का नाम सुनते ही कुछ लोगों के कान खड़े हो जाते हैं और यही वह मुख्य वजह है जिससे जाति की राजनीति को हिकारत की नजर से देखा जाता है।

जाति की राजनीति न करने के पक्ष में कोई दमदार तर्क आए तो बहस भी हो। लेकिन जाति की राजनीति का विरोध करने वाले ज्यादातर लोग अपने पक्ष में ठोस तर्क नहीं दे पाते। तर्क के नाम पर जो कुतर्क बांचा जाता है उससे जातिवाद, गैरबराबरी, भेदभावा, शोषण के प्रमोशन की दुर्गंध आती है।

ख़ैर, ‘आरक्षण’ के बहस पर लौटते हैं। इस शब्द को नकारात्मक तरीके से पेश करने की लगभग हर कोशिश न्यायालय से लेकर संसद तक विफल हो चुकी है। तमाम बहसों में यह साबित किया जा चुका है कि आरक्षण दान-दया, भीख नहीं हैं और ना ही यह कोई ग़रीबी मिटाओ योजना नहीं है।

इसे पॉज़िटिव एक्शन या अफरमेटिव एक्शन के रूप में भी समझा जा सकता है। आरक्षण का सीधा संबंध ‘प्रतिनिधित्व’ से है। सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में देश की वंचित आबादी को समुचित प्रतिनिधित्व दिए बिना राष्ट्र निर्माण का काम पूरा नहीं हो सकता।

पिछली कई सरकारों की नीतियां रोजगार सृजन के मामले में विफल रही हैं। कांग्रेस द्वारा लागू की गई उदारवादी आर्थिक नीतियों का कुप्रभाव सबसे अधिक रोज़गार पर ही पड़ा। इन नीतियों की विफलता ही है जो आए दिन जाट, गुर्जर, पटेल, मराठा समाज आरक्षण के लिए आक्रोशित हो जाते हैं। दूसरी तरफ ‘प्रतिनिधित्व’ के ग्राउंड पर महिला आरक्षण, ट्रांसजेंडर आरक्षण, प्रमोशन में आरक्षण, निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग भी उठती रहती है।

एससी-एसटी आरक्षण और ओबीसी आरक्षण के बाद सवर्ण सबसे ज्यादा निजी क्षेत्र में आरक्षण के मांग का विरोध करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि निजी क्षेत्र में सवर्णों का एकाधिकार है। निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग सवर्णों के एकाधिकार को चुनौती है।

सीजनल तरीके से तमाम राजनीति दल निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग पर हामी भरते रहे हैं। लेकिन कभी भी इसके लिए एकजुट पहले नहीं की गई। जबकि निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग संवैधानिक भी है और समय की ज़रूरत भी।

2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ ऐसे दल नज़र आ रहे हैं जो मुखर तरीके से प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण का मुद्दा उठा रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में वादा किया है अगर उनकी सरकार बनी तो प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण लागू करेंगे।

बहुजन समाज पार्टी घोषणापत्र जारी नहीं करती। लेकिन बसपा प्रमुख मायावती लगभग अपने हर चुनाव सभा में निजी क्षेत्र में आरक्षण देने की बात कह रही हैं। यूपी में सपा-रालोद के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही बसपा प्रमुख मायावती ने 9 अप्रैल को कहा कि ‘एक बार गठबंधन सरकार बना ले, निजी क्षेत्र में भी आरक्षण प्रदान किया जाएगा’

20 अप्रैल को यूपी के रामपुर लोकसभा क्षेत्र में मायावती ने चुनाव मंच से कांग्रेस-बीजेपी द्वारा प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण न दिए जाने की आलोचना की। तो इस तरह एक बार फिर ‘निजी क्षेत्र में आरक्षण’ पर बहस शुरू हो चुकी है।

इस बहस को आगे बढ़ाने से पहले बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर की उस बात को याद करना चाहिए, जिसमें वो कहते हैं कि ‘सामाजिक विषमताओं के ख़त्म किए बिना सिर्फ़ आर्थिक समस्याओं के आधार पर नीति बनाने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता’

भारत की प्रमुख सामाजिक विषमता जाति है। इस विषमता को पाटने के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू करना वक्त की जरूरत है। और तर्क तो बिल्कुल बोगस है कि ‘आरक्षण के कारण मुझे रोजगार का अवसर नहीं मिल रहा’ क्योंकि शिक्षित लोगों के लिए देश में उपलब्ध कुल नौकरियों में मात्र 0.69 फ़ीसदी ही आरक्षित हैं यानी एक फ़ीसदी से भी कम।

आंकड़े बताते हैं कि सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर बहुत ही कम है और जो हैं उनमें भी लगातार गिरावट आ रही है।सरकारी क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र में रोजगार की संभावना अधिक है। वरिष्ठ पत्रकार ‘प्रकाश के रे’ वायर हिंदी के लिए लिखे एक आर्टिकल में इसे आंकड़ों के साथ विस्तार से समझाते हैं।

‘प्रकाश के रे’ वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वे के हवाले से लिखते हैं कि 2006 में सरकारी क्षेत्र में कार्यरत लोगों की संख्या 1.82 करोड़ थी, जो 2012 में घटकर 1.76 करोड़ हो गयी यानी उक्त अवधि में सरकारी नौकरियों में 3.3 फ़ीसदी की कमी आयी।

इसके बरक्स निजी क्षेत्र में 2006 में 87.7 लाख नौकरियां थीं, जो 2012 में बढ़कर 1.19 करोड़ हो गयीं। यह 35.7 फ़ीसदी की बढ़त थी।

जहां एक तरफ आरक्षण की वजह से सरकारी क्षेत्र में एससी, एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व आबादी के अनुपात में ठीक है। वहीं निजी क्षेत्र में एससी, एसटी और ओबीसी की संख्या बेहद कम है लेकिन कथित उच्च जातियां अपनी आबादी के अनुपात से लगभग दोगुनी हैं।

एक और बात निजी क्षेत्र में एससी, एसटी और ओबीसी की जो संख्या है उसमें भी ज्यादातर की भागीदारी निचली श्रेणी में है। फैसले लेने वाले ज्यादातर पदों पर उच्च जातियों के कुलीन पुरूष हैं।

ऐसे में निजी क्षेत्र में आरक्षण क्यों नहीं होनी चाहिए? वैसा ये जान लेना जरूरी है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात हवा-हवाई नहीं है।

सरकार द्वारा बनाई गई राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने फरवरी 2017 में निजी क्षेत्र में आरक्षण की सिफारिश की थी। इसके पीछे आयोग का तर्क था कि सरकारी क्षेत्र में नौकरियों का लगातार कम होना। मंडल कमीशन की सिफारिशों में भी कहा गया है कि ग़ैर-सरकारी सहायता प्राप्त संस्थाओं में भी आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए।

निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग को मेरिट या सामान्य श्रेणी के साथ अन्याय जैसे कुतर्कों के सहारे भी खारिज नहीं किया जा सकता। जहां तक निजी क्षेत्र की स्वायत्तता वाली बात है तो ये विशुद्ध ढ़ोंग है। अभी तक आरक्षण ना देकर निजी क्षेत्रों ने देश की जीडीपी में चार चांद नहीं लगा दिया है।

निजी क्षेत्र में आरक्षण न देने के लिए मेरिट वाली बात तो आंख में धूल झोंकना है। क्योंकि प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में जमकर जातिवाद होता है। प्राइवेट कंपनियों में अपनी जाति के लोगों को नौकरी देना, प्रमोशन देना आम बात है। देश के ज्यादातर बड़े प्राइवेट कंपनियों में एम्पलाई की जाति आधारित समीक्षा की जाए तो यही निष्कर्ष सामने आएगा।

प्रिंट हिंदी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, सुखदेव थोराट और पॉल ऐटवेल ने 2007 में दिल्ली एनसीआर में एक बड़ा रिसर्च इस सिलसिले में किया था। उन्होंने अखबारों में आए जॉब के विज्ञापनों के जवाब में तीन तरह के बायोडाटा भेजे. बायोडाटा में शिक्षा और अनुभव समेत सभी फैक्ट एक जैसे रखे गए। सभी बायोडाटा पुरुष कैंडिडेट के थे। लेकिन पहले बायोडाटा का सरनेम ऐसा रखा गया ताकि कैंडिडेट सवर्ण हिंदू नजर आए। दूसरे का सरनेम दलित और तीसरे का नाम मुसलमान रखा गया।

इस शोध से पता चला कि कंपनियां जब बायोडाटा छांटती हैं तो इस बात के ज्यादा मौके हैं कि सवर्ण हिंदू सरनेम वाले कैंडिडेट के पास इंटरव्यू का कॉल आए और दलित या मुसलमान नाम वाले कैंडिडेट छंट जाएं। इस रिसर्च ने भारत में आधुनिकता और जाति के अंत में रिश्ता स्थापित करने वालों की थ्योरी की धज्जियां उड़ा दीं। जब इंटरव्यू के लिए बुलाने में ही भेदभाव हो रहा है, तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नौकरियां देते समय जाति की और भी ज्यादा भूमिका होती होगी।

अब अगर प्राइवेट सेक्टर में इस तरह का जातिवाद है तो मेरिट बात देश के दलित, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय है। ये आंकड़ें, तथ्य, तर्क बताते हैं कि निजी क्षेत्र में आरक्षण वक्त की जरूरत है।

मीडिया की चुप्पी पर सवाल

मायावती जैसे विपक्षी नेता के किसी भी बयान को तिल का ताड़ बनाने वाली मीडिया निजी क्षेत्र में आरक्षण वाले मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा है, सकारात्मक तो छोड़ो नकरात्मक कवरेज भी नहीं दे रहा है। ऐसा क्यों ?

इसके लिए इतना ही समझना काफी होगा कि मीडिया जातिवादी है, सवर्णवादी है

इसके लिए इतना ही मानना काफी होगा कि मीडिया पूंजीवादी है, कॉर्पोरेट की मेहरबानी पर चलता है।

जब जाति और पूँजी की संरचना ऐसी है तो निजी क्षेत्र में आरक्षण की बहस में पड़कर मीडिया क्यों अपना बुरा चाहेगा। दलितों पिछड़ों को मुख्यधारा में ले आकर अपनी दुकानदारी का भविष्य क्यों अनिश्चित करना चाहेगा।

 

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