देश में कोरोना की दूसरी लहर से समाज का हर वर्ग प्रभावित हो रहा है। पत्रकार भी इससे अछूते नहीं रहे। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 28 दिनों में 52 पत्रकार कोरोना की वजह से मर चुके हैं। जो वर्ग लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, वहां भी इस महामारी ने कहर मचा कर रख दिया है।

नेशनल मीडिया के साथ क्षेत्रीय स्तर तक के पत्रकार बड़ी संख्या में पिछले 1 साल में कोरोना की भेंट चढ़ चुके हैं।

द हिंदू पब्लिशिंग ग्रुप के डायरेक्टर एन राम ने ट्वीटर पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि पिछले 28 दिनों में 52 से ज्यादा पत्रकार मौत के मुंह में जा चुके हैं। बात करें पिछले 1 साल की तो 101 लोगों की मौत हो चुकी है।

वहीं इस मुद्दे पर पूर्व पत्रकार और फिल्ममेकर विनोद कापड़ी ने ट्वीटर पर इस मुद्दे पर लिखा है कि “यकीन नहीं होता कि मोदी का डर मौत के डर से ज्यादा है. अब भी वक्त है जाग जाओ और बस सच लिखो और सच कहो.

मेरे या तुम्हारे जाने के बाद मोदी या कोई और तुम्हारे परिवार को पूछेगा भी नहीं, इसलिए फिर कह रहा हूं कि डरो मत, लड़ो.”

विनोद कापड़ी ने वर्तमान समय में देश में चल रही गोदी मीडिया को इशारों ही इशारों में सच से रुबरु करा दिया है।

मीडिया का असल चरित्र है सरकार की विफलताओं को प्रखर तरीके से उठाना लेकिन आज की मीडिया कर क्या रही है, सरकार के पापों और विफलताओं पर पर्दा डाल रही है। झूठ का बाजार सजा रही है।

सरकार की नाकामियों को भी सफलता की तरह दिखा रही है. सरकार से सवाल पूछने की बजाय विपक्ष से सवाल करती है. पीएम मोदी से जवाब लेने की बजाय नेहरु को कोसती है।

देश की ध्वस्त हो चुकी स्वास्थ्य व्यवस्था पर सरकार को घेर कर इस मीडिया ने सवाल पूछे होते, सरकार को कटघरे में खड़ा किया होता तो ये सैकड़ों पत्रकार सिस्टम की भेंट नहीं चढ़ते।

इन पत्रकारों को मोदी का खौफ इतना था कि उसके आगे अपनी मौत का खौफ भी छोटा लगने लगा।

पत्रकारिता की जगह चाटुकारिता करते करते पत्रकार दुनिया को अलविदा कह गए। मरने के बाद भी अपने परिवार के लिए बदनामी छोड़ गए।

क्या इन पत्रकारों की विधवा हो चुकी पत्नियों और अनाथ हो चुके बच्चों के लिए वो सरकार कुछ करेगी जिसके लिए उन्होंने पत्रकारिता की सभी मर्यादाओं को ध्वस्त कर दिया और चापलूसी को अपना धर्म बना लिया।

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