कुछ दिनों बाद लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होना है। चुनाव आयोग नागरिकों से बढ़ चढकर मतदान में हिस्सा लेने की अपील कर रही है। साथ ही तरह तरह के नारे गढ़ नागरिकों को मतदान के लिए उत्साहित कर रहा है। ऐसा ही एक नारा है- ‘न जाति पे, न धर्म पे, बटन दबेंगा, कर्म पे’
‘कर्म पे’ यानी काम पर। सरकार ने पिछले पांच सालों में अपने नागरिकों के लिए क्या-क्या किया, जनता इस आधार पर वोट करे। तो क्या सरकार ने जो वादे किए थे वो पूरे हुए? क्या इस चुनाव में मतदान के लिए जा रहे मतदाताओं को ये याद रहेगा कि इस सरकार ने उनके जीवन को कितना आसान या मुश्किल बना दिया?
जाहिर है सरकार ने पांच साल में कुछ न कुछ विकास कार्य तो जरूर किए होंगे। लेकिन क्या इस सरकार ने अपने कामकाज से समाज को भी प्रबुद्ध बनाया है? क्या मोदी सरकार ने संविधान की प्रस्तावना में लिखे समानता, न्याय, धर्मनिरपेक्षता, भाईचारा… आदि का ख्याल रखा? तमाम अन्य संवैधानिक मुल्यों का ख्याल रखा?
इन सवालों का जवाब जनता अपने मतदान के माध्यम से देगी। हमारा काम उन्हें याद दिलाना कि पिछले पांच सालों वो कौन-कौन सी घटनाएं हुईं जिससे इंसानियत शर्मसार हुई, संविधान की धज्जियां उड़ी।
तो पिछले पांच सालों में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, नॉर्थ ईस्ट से लेकर गुजरात तक शायद ही कोई ऐसा शहर बचा हो जहां भीड़ ने कानून अपने हाथ में न लिए हो। आज़ादी के बाद पहली बार पूरे भारत ने एक ऐसा दौर देखा जब भीड़ ने न्याय-अन्याय का फैसला किया। अपने हिसाब से किया। किसी को मारा, किसी को घसीटा, किसी की जान ही ले ली, तो कभी हत्या का जश्न मनाया।
मोदीराज में भारत ने सूचना क्रांति का सबसे भयावह रूप देखा। मोबाइल फ़ोन से निकले एक सन्देश के पीछे हज़ारों की भीड़ दौड़ने लगी। ये भीड़ किसी को भी पकड़ लेती है। देश में संविधान से अलग भीड़ अपना अलग कानून चलने लगी है।
1. व्हाट्सएप पर अफवाह फैली की राज्य में बच्चों के अपहरण का गिरोह घूम रहा है। इसके बाद भीड़ झारखण्ड के जमशेदपुर में मोहम्मद नईम को सरेआम पीटती है, बार बार डंडे और लातों से नईम को मारा जाता है। शोभापुर गाँव के रहने वालों नईम और उनके तीन दोस्तों को तब तक मारा जाता है जब कि वो मर नहीं जाते। 35 साल के नईम एक व्यापारी थे, जिन्हें भीड़ ने बच्चा चोरी के आरोप में मार दिया। क्या मतदान करते वक्त मतदाता नईम शेख की मौत को ध्यान में रखेंगे?
2. मोदी सरकार में ही धार्मिक कट्टरपंथियों ने भगवा और तिरंगा को मिलाने की कोशिश की। इसका विरोध करने वालों पर हमला हुआ। कई लोगों की हत्या भी हुई है। धार्मिक कट्टरता के खिलाफ लिखने वाले, हिंसा और हत्या की राजनीति का विरोध करने वाले एक्टिविस्ट, लेखक गोविन्द पानसरे भी इसी सूची में आते हैं।
PM मोदी 2014 में ‘सपने’ बेचते थे अब 2019 में आते आते टी-शर्ट और बिंदी बेचने लगे हैं
16 फरवरी 2015 को अज्ञात हमलावरों ने कोल्हापुर में कामरेड गोविंद पानसरे को गोली मार दी। गंभीर रूप से घायल पानसरे को उपचार के लिए मुंबई लाया गया था। चार दिन बाद 20 फरवरी को पानसरे की मौत हो गई थी। हत्या का आरोप हिंदुत्ववादी संगठनों पर है। पानसरे की गलती बस इतनी थी कि वो धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध लिखते थे। क्या वोटिंग के वक्त मतदाताओं को बुद्धिजीवी पानसरे याद आएंगे?
3. दक्षिणपंथी बीजेपी के कार्यकाल में आलोचना का स्पेस कम हुआ है। आलोचना करने वालों और सवाल पूछने वालों पर हमले तेज हुए हैं। जबकि लोकतंत्र की मजबूती के लिए आलोचना और कड़े सवाल दोनों ही बेहद महत्वपूर्ण हैं।
55 साल की गौरी लंकेश वरिष्ठ पत्रकार और दक्षिणपंथियों की आलोचक थीं। सितंबर 2017 में गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या कर दी गई। हिंदूवादी गुंडों ने रात के वक्त गौरी लंकेश को बेंगलुरु में उनके घर के नीचे गोली मारी। गौरी ‘लंकेश पत्रिका’ का संचालन कर रही थीं और कर्नाटक के भीतर उभर रही कट्टर हिंदूवादी ताकतों और आरएसएस-बीजेपी के खिलाफ खुलकर लिख रही थीं। सिर्फ आलोचना करने और सवाल उठाने की वजह से गौरी लंकेश की हत्या की गई। क्या मतदाता गौरी लंकेश जैसी निर्भीक महिला पत्रकार को याद करेंगे?
4. 2014 में एक निजी अस्पताल का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि, ‘विश्व को प्लास्टिक सर्जरी का कौशल भारत की देन है। दुनिया में सबसे पहले गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी हुई थी, जब उनके सिर की जगह हाथी का सिर लगा दिया गया था।’
जाहिर है प्रधानमंत्री का ये बयान माइथोलॉजी पर आधारित है जिसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। पीएम के बयान में संविधान के विरूद्ध प्रचूर मात्रा में अंधविश्वास भी है। क्योंकि संविधान की धारा 51-ए में कहा गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
सवाल उठता है कि जब देश के प्रधानमंत्री ही अंधविश्वास के शिकार हैं तो फिर किसी नागरिक की तर्कवादी बातों को कितना स्वीकार किया जाएगा?
ख़ैर, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से कुछ महीने पहले 20 अगस्त 2013 को डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की हत्या कर दी गई थी। दाभोलकर अंधविश्वास निर्मूलन आंदोलन में 1982 से ही जुटे हुए थे। कट्टर दक्षिणपंथी संगठन उन्हें हिंदूविरोधी मानते थे और इसी वजह से उनकी हत्या कर दी गई। हत्या का आरोप कई हिंदूवादी संगठनों पर है।
बीजेपी सरकार पर आरोप लगते रहते हैं कि वो इस हत्या की जांच में निष्पक्षता नहीं बरत रही है। हत्या को 5 साल से ज्यादा हो चुके। केंद्र में बीजेपी के कार्यकाल को भी पांच साल पूरे हो चुके लेकिन इस मामले में कोई फैसला नहीं आया। तो क्या वोटिंग के वक्त मतदाताओं को दाभोलकर याद आएंगे?
5. 2018 के आंकड़े बताते हैं कि गाय को लेकर भीड़ की हिंसा से मरने वालों में सभी मुसलमान थे। गौ तस्करी के मामले में निशाना हिन्द्दुओं को भी बनाया गया। मंदिर के लाउडस्पीकर से निकली अफवाह का नतीजा है कि दादरी के बिसरा गाँव में रहने वाले मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या कर दी गई। अखलाक को डंडों और ईंटों से मारा गया। उनपर बीफ खाने का शक था। क्या वोट देते वक्त जनता अखलाक की हत्या को याद करेगी?
6. गुजरात में कथित ऊंची जाति के गुंडों ने 21 वर्षीय दलित युवक प्रदीप राठोड को घोड़ा पालने और उसकी सवारी करने की वजह से मार दिया। क्या मतदाताओं को प्रदीप याद रहेंगे?
जनता को मोदी सरकार के पांच साल की उपलब्धियां भले ही याद न हो लेकिन ‘मॉब लिंचिंग’, ‘गौ हत्या’ जैसे शब्द ज़रूर ज़ुबान पर चढ़ गए होंगे। चुनाव में हर वोट मायने रखता है, इसलिए जनता को मतदान के वक्त सामाज में पैदा हुई इन बुराईयों को भी याद रखना चाहिए। ताकि आने वाली सरकार के ध्यान में रहे कि लोकतंत्र की ताकत और संविधान के आगे तानाशाही रवैया नहीं टिक सकता।