उत्तर प्रदेश के कई जिलों में सक्रिय तौर पर चुनावी दंगल में शामिल होने वाली एक पार्टी है-पीस पार्टी। फिलहाल इस पार्टी के पास अभी कोई विधायक नहीं है मगर बीते कई वर्षों में इसके कई प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा जा चुके हैं।

इस पार्टी के कर्ता-धर्ता है डॉक्टर अयूब सर्जन। हां, वही डॉक्टर अयूब सर्जन जिन्हें डेढ़ साल पहले डॉक्टर अंबेडकर पर आपत्तिजनक टिप्पणी के लिए तमाम आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था। सोशल मीडिया पर चल रही आधी अधूरी जानकारी को अपनी राय बनाकर उन्होंने ट्विटर पर लिखा था-

“अंबेडकर जी ने कैबिनेट मंत्री रहते, सन 1950 की कैबिनेट मीटिंग में मुस्लिम सिख ईसाई बौद्ध दलितों को दलित आरक्षण से बाहर कराने का अध्यादेश पास कराया।

सिख बौद्ध को बाद में आरक्षण मिला पर मुस्लिम इसाई दलित को नहीं। क्या यह धर्म के आधार पर देश के दलितों के साथ अंबेडकर जी का भेदभाव नहीं?”

No description available.वैसे ये सवाल वाजिब है मगर खेल है परसेप्शन का, समझिए कैसे-

क्योंकि मुस्लिमों को एससी आरक्षण ना मिलने का ठीकरा उन्होंने अंबेडकर पर फोड़ दिया, ये बात जानते हुए कि तब उनका फोकस सिर्फ और सिर्फ हिंदू धर्म में जहालत की जिंदगी जी रहे कथित अछूतों को बाहर निकालने पर था। एससी आरक्षण से बौद्धों और सिखों को भी बाहर रखा गया था मगर इन समूहों ने राजनैतिक दबाव बनाकर बाद में आरक्षण प्राप्त कर लिया।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमानों को अनुसूचित जाति का आरक्षण तभी मिल सकेगा जब उनकी रहनुमाई कर रहे नेता राजनीतिक दबाव बना पाएंगे और विधानसभाओं समेत लोकसभा, राज्यसभा में समर्थन जुटा लेंगे।

क्योंकि आजादी के वक्त मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अच्छा था और जात पात छुआ- छूत की इतनी विकट समस्या इस्लाम धर्म के मूल में नहीं थी तो डॉक्टर अंबेडकर ने इस समूह को उस पीड़ित वंचित प्रताड़ित समूह से अलग समझा।

मगर वर्तमान में हालात और तमाम रिपोर्ट इस ओर इशारा करते हैं कि मुसलमानों के लिए भी अनुसूचित जाति कैटेगरी का आरक्षण होना चाहिए। शायद इसी मुद्दे को हवा देने के लिए डॉक्टर अयूब को सबसे आसान रास्ता मिला डॉ अंबेडकर पर ठीकरा फोड़ देने का।

ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि इस मसले पर काम करने वाले वह अकेले राजनेता नहीं हैं। उनसे पहले बहुजन समाज पार्टी की वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने ना सिर्फ इस मामले को उठाया बल्कि संवैधानिक तरीके से इस आरक्षण को लागू करने की कोशिश की, मगर विवाद हो गया। वर्तमान एससी आरक्षण में बिना कोटा बढ़ाए उसी कोटे के अंदर तमाम पसमांदा जातियों को भी शामिल किया जाने की बात होने लगी।

अब क्योंकि दलितों के हालात बद से बदतर हैं और उन्हें मिलने वाला आरक्षण खुद ही नाकाफी है, तो उसी कोटे के अंदर आरक्षण देने के मसले पर दलितों में नाराज़गी बढ़ गई, मायावती को बैकफुट पर जाना पड़ा।

सामाजिक दृष्टिकोण से देखें तो पसमांदा मुसलमानों के लिए भी आरक्षण उतना ही अनिवार्य था इसलिए राज्य और केंद्र सरकार को मिलकर कोटा बढ़ाना चाहिए था और वंचित मुस्लिम जातियों को भी आरक्षण देना चाहिए था। हालांकि ऐसा करने के लिए मुसलमानों के कई नेता भी तैयार नहीं थे क्योंकि वो खुद सामाजिक स्थिति में कथित ऊंची जाति से ताल्लुक रखते हैं।

इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारत में रह रहे मुसलमानों में अब जातिवाद उसी तरह हावी होता चला जा रहा है जैसे कि पहले से हिंदू समाज में व्याप्त था।

इसलिए डॉक्टर अयूब सर्जन को जातिवाद की इन परतों को समझते हुए आरक्षण के लिए वर्तमान नेताओं से सवाल करने चाहिए ना कि डॉक्टर अम्बेडकर से। ख़ैर, इन्होंने तब जो किया सो किया, अब दोबारा चर्चा में हैं आज़ाद समाज पार्टी से गठबंधन को लेकर।

No description available.
जी हाँ, चंद्रेशखर आज़ाद के नेतृत्व वाली आज़ाद समाज पार्टी ने अयूब की पीस पार्टी से गठबंधन किया है। अम्बेडकर का नाम लेकर राजनीति करने वाले चंद्रशेखर ने अम्बेडकर पर ठीकरा फोड़ने वाले डॉ अयूब से हाथ मिलाया है। जिससे उनके प्रति भी लोगों में नाराज़गी बढ़ती जा रही है।

इसी मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के असोसिएट प्रोफ़ेसर खालिद अनीस अंसारी लिखते हैं….

Rest in “peace,” Azad Samaj Party!!!

उनका ये तंज़ इशारा करता है कि आज़ाद समाज पार्टी को खत्म मान लेना चाहिए।

इसके पहले डॉ. अयूब सर्जन की गिरफ्तारी पर प्रतिक्रिया देते हुए 1 अगस्त, 2020 को लिखा था- “पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ अयूब “अंसारी/जुलाहा” बिरादरी से आते हैं लेकिन अपनी जाति छुपाये-छुपाये फिरते हैं। बल्कि उन्होंने अपने पेशे के आधार पर एक नयी जाति “सर्जन” ईजाद की है जिसे वह उपनाम के तौर पर लगाते हैं। देखना यह है कि डॉ अय्यूब ‘सर्जन’ इस नयी बिरादरी को ओबीसी कोटा में लाने की कोशिश करते हैं कि नहीं।

डॉक्टर साहब को लगता है कि वह तो आर्थिक तौर पर तरक्की कर ही चुके हैं तो फिर “पसमांदा” शब्द का इस्तेमाल क्यों करें। नफरत है उन्हें पसमांदा शब्द से। लेकिन वहीं साथ-साथ अतिपिछड़ा शब्द बड़े शान के साथ अपने पर्चों में इस्तेमाल करते हैं। तो उनके अनुसार पैसा कमाने के बाद व्यक्ति अतिपिछड़ा तो हो सकता है लेकिन पसमांदा नहीं।

खैर, इधर थोड़ा ज्यादा जोश में थे तो एक विज्ञापन छपवा दिया उर्दू अखबार ‘इंक़िलाब’ में। इस विज्ञापन में “सरकारी उलेमा (धर्मगुरु)” के ऊपर “100 सालों से हेडगवार, सावरकर, नेहरू, लोहिया, अम्बेडकर के मिशन पर चलने” का आरोप लगा डाला जो कि उनके अनुसार “एहकामे इलाही और निजामे मुस्तफा के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है” इस विज्ञापन में शायद पहली बार पीस पार्टी ने अपना “सियासी मिशन” खुल के “एहकामे इलाही व निजामे मुस्तफा” (यानि इस्लामी राज्य) को स्थापित करना बताया है। मुझे पता नहीं की जमात-ए-इस्लामी या आरएसएस ने भी कभी खुल के इस्लामिक या हिन्दू स्टेट बनाने की बात किसी मेनस्ट्रीम अखबार में विज्ञापन के ज़रिये कभी की हो? वैसे पीस पार्टी का नामांकरण तो डॉ जाकिर नायक के “पीस टीवी” से प्रेरित लगता ही था जो की दक्षिणपंथी सलाफ़ी/वहाबी विचारधारा का पोषक है। “हेडगवार, सावरकर, नेहरू, लोहिया, अम्बेडकर” के आपसी वैचारिक मतभेदों के बावजूद सब को एक ही रंग में रंग देना, यानी सब को केवल “हिन्दू” बना देना, भी दिलचस्प है।

डॉ अयूब सर्जन एक औसत दर्जे के राजनीतिज्ञ प्रतीत होते हैं जो कमज़ोर जाति में पैदा होने की वजह से उभरी एहसास-ए-कमतरी (inferiority complex) को धार्मिकता (religiosity) से छुपाने की कोशिश करते हैं। पसमांदा से दूर भागते हैं और अशराफ उन्हें पास लगाता नहीं…..

…अगर लगाता भी है तो सिर्फ सियासी लाभ या उन की दौलत लूटने के लिए। इस्लामिक स्टेट की इनकी अवधारणा हिंदुत्व की ब्राह्मणवादी राजनीति को मज़बूत करेगी। डॉ अयूब अब खुल के हिन्दू-मुस्लिम बाइनरी की सियासत कर रहे हैं जिससे पसमांदा-बहुजन का सिर्फ नुकसान ही होगा।

खैर, बकरीद से पहले धार्मिक भावनाओं को भड़काने के आरोप में डॉ. अयूब को बड़हलगंज पुलिस ने गिरफ्तार कर लखनऊ पुलिस को सौंप दिया। मैं अभिव्यक्ति की आजादी का पक्षधर हूँ इसलिए उनकी गिरफ्तारी की घनघोर निंदा करता हूँ। डॉ अयूब सर्जन जैसे नेताओं को बोलने देना चाहिए ताकि हम पसमांदा-बहुजन समाज को एक मॉडल दिखा सकें कि उन्हें कैसा नहीं बनना है।”

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