
मोदी सरकार यूं तो कई मुद्दों को लेकर विरोध का सामना कर रही है। इसमें सामाजिक, धार्मिक, कानून व्यवस्था और विकास सम्बंधित मुद्दें हैं। लेकिन जिस मुद्दे पर सरकार बुरी तरह घिर चुकी और जिसको कोई भी व्यक्ति या समुदाय नज़रंदाज़ नहीं कर सकता है वो है अर्थव्यवस्था।
2014 में भारत को चाँद पर पहुँचाने का दावा करने वाले नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारत की अर्थव्यवस्था बहुत कमज़ोर हुई है।
इसकी दास्तान देश की मुद्रा ‘रुपया’ से लेकर देश में घट रहे निवेश के आंकड़ें बताते हैं।किसी भी तरह की अर्थव्यवस्था में निवेश सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। चाहे वो सरकारी हो या निजी लेकीन बिना निवेश के कुछ संभव नहीं है। 2014 के बाद से देश में निवेश लगातार घट रहा है।
देश में सभी तरह के निवेश को ग्रॉस कैपिटल फॉर्मेशन कहा जाता है। इसमें देश के अलग-अलग क्षेत्रों में कई तरह के निवेश को रखा जाता है वो फिर उसके आधार पर औसतन निवेश की विकास दर बताई जाती है।
वर्ष 2006-07, से वर्ष 2011-12, के बीच ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉर्मेशन में औसतन 10.7% की बढ़ोतरी हुई, लेकीन उसके बाद से वर्ष 2018, तक ये घटकर ये घटकर 5.3% रह गई। निवेश को भी जीडीपी का एक अहम पैमाना माना जाता है।
जब मांग अधिक होती है, तब कंपनियां सप्लाई बढ़ाने के लिए प्रोडक्शन क्षमता बढ़ाती हैं। इसके लिए उन्हें अधिक निवेश करना पड़ता है। लेकिन वर्तमान जनता के जेब में पैसा पहले के मुकाबले कम है और इसलिए मांग नहीं है इसी के कारण निवेश घट रहा है।
वहीं, जिस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो रही है शेयर बाज़ार में एक झटके में लोग लाखों करोड़ गवा रहे हैं, ILFS जैसी देश की बड़ी कम्पनियाँ डूब रही हैं और आरबीआई के गवर्नर अचानक इस्तीफा दे रहे हैं इस सब को देखते हुए विदेशी निवेशक भी भारत में पैसा लगाने से कतरा रहे हैं।
निवेश ना होने से बाज़ार में नए उद्योग शुरू नहीं हो पा रहे हैं और इस कारण रोज़गार पैदा नहीं हो रहा है। मोदी सरकार के कार्यकाल में उद्योगपति गौतम अडानी से लेकर मुकेश अम्बानी की संपत्ति में तो दिन दोगुनी रात चौगनी तरक्की हो रही है लेकिन आम जनता बाज़ार में निवेश ना होने के कारण घटता रोज़गार और गिरती आय दोनों की मार झेल रही है।