मोदी सरकार ने लोकसभा में विपक्षियों के विरोध के बावजूद नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) को और ताक़त देने वाले बिल को पास करा लिया है। सरकार का तर्क है कि इससे आतंकवाद पर लगाम कसने में मदद मिलेगी। लेकिन क्या विपक्षियों के दावे के मुताबिक NIA का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों को फंसाने के लिए नहीं किया जा रहा?

इस सवाल का जवाब NIA की उस कार्रवाई को देखने के बाद मिल सकता है, जो उसने पिछले साल दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में की थी। दरअसल, दिसंबर 2018 में NIA ने दिल्ली और उत्तर प्रदेश के अमरोहा समेत कई शहरों में छापेमारी कर एक बड़े ISIS मॉड्यूल का भांडा फोड़ने का दावा किया था। एनआईए ने इस मामले में 14 संदिग्धों को गिरफ्तार कर एक बड़ी साज़िश को नाकाम करने का दावा किया था।

लेकिन 21 जून को जब NIA ने इस मामले में पटियाला हाउस कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की तो उसमें 10 आरोपियों का ही नाम था। यानी चार आरोपियों को 6 महीने की जेल के बाद सबूत न मिलने पर रिहा कर दिया गया। जिन आरोपियों को रिहा किया गया है, उनके नाम मोहम्मद इरशाद, रईस अहमद, ज़ैद मलिक और मोहम्मद आज़म हैं।

इन सभी पर आरोप था कि इन्होंने रॉकेट लॉन्चर और बम बनाने में मुख्य आरोपी मोहम्मद सुहैल की मदद की। लेकिन NIA अपने दावे के मुताबिक सबूत इकठ्ठा करने में नाकाम रही। जिसके चलते वह इन चार लोगों के खिलाफ़ चार्जशीट दाख़िल नहीं कर सकी। लेकिन NIA द्वारा शक की बुनियाद पर इन चार लोगों को गिरप्तार किए जाने से इनकी ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई।

जेल से बाहर आए अमरोहा के सैदपुर इलमा गांव के रहने वाले रईस अहमद  ने बताया कि दिसंबर में NIA ने उनकी दुकान में छापेमारी की थी। इसमें उन्हें और उनके भाई को पकड़ा गया था। आतंकी साज़िश के नाम पर दोनों की गिरफ्तारी होने से उनके पिता सदमे में आ गए जिससे उनकी मौत हो गई। उन्होंने यह भी बताया कि उनके जेल जाने से उनकी दुकान भी बंद हो गई, जो उनके परिवार को पालने का एकमात्र ज़रिया थी।

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