
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के मद्देनजर जगदलपुर में एक बड़ी रैली की। यहां उन्होंने पिछले दिनों डीडी न्यूज़ के कैमरामैन अच्युतानंद साहू की नक्सली हमले में मौत पर माओवादियों और कांग्रेस को आड़े हाथों लिया।
उन्होंने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि वह (अच्युतानंद साहू) बंदूक लेकर नहीं आया था, वह कंधे पर कैमरा लेकर आया था। उसे मार दिया गया। इसके साथ ही पिछले दिनों नक्सली हमले में मारे गए जवानों का ज़िक्र करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि अभी दो दिन पहले भी नक्सली हमले में जवान मारे गए।
उन्होंने कहा कि ये माओवादी निर्बलों की हत्या करें और कांग्रेस उन्हें क्रांतिकारी कहे। क्या कांग्रेस की इस बात का आप समर्थन कर रहे हैं। एक निर्दोष पत्रकार को जिन्होंने मौत के घाट उतार दिया, आपको वे क्रांतिकारी लगने लगे हैं।
पीएम मोदी भले ही आज माओवादियों को विलेन बता रहे हों। वह कांग्रेस पर माओवादियों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखने का आरोप लगा रहे हों लेकिन हक़ीक़त यह है कि केंद्र की सत्ता में आने से पहले नरेंद्र मोदी भी माओवादियों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखते थे।
उन्होंने 21 मई 2010 को अलीगढ़ के मंगलायतन विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि माओवादी हमारे ही लोग हैं और सरकार को उनसे बातचीत कायम करनी चाहिए। हम उन्हें बताएंगे कि हिंसा समस्याओं का उपाय नहीं है। बातचीत ही माओवाद की समस्या को खत्म करने का बेहतरीन तरीका है।
यह बातें नरेंद्र मोदी ने तब कही थीं जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उस वक्त छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ही थे। रमन सिंह उस वक्त भी माओवाद को आतंकवाद बताते थे और इसे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते थे।
अब सवाल यह उठता है कि बात के ज़रिए माओवाद की समस्या का समाधान करने वाले नरेंद्र मोदी अब किस मुंह से माओवादियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बात कर रहे हैं और वह यह किस बुनियाद पर दावा कर रहे हैं कि कांग्रेस उन्हें माओवादियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने से रोक रही है।
जब मोदी मुख्यमंत्री थे तो अपनी ही पार्टी के दूसरे मुख्यमंत्री की बात से असहमति जताते थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद वह अपने तमाम नेताओं की तरह ही बयान देते नज़र आते हैं। क्या इसे अवसरवाद की राजनीति कहना ग़लत है?