
दीपाली तायडे
नाई जाति में जन्म लिए भिखारी ठाकुर अनगढ़ रहकर भी हमेशा अद्वितीय बने रहे। लगातार ग़रीबी, अपमान और भूख की जद्दोजहद के बीच भी उन्होंने खुद के व्यक्तित्व इस तरह निखारा की आज के बड़े-बड़े कलावंत उनके सामने पानी भरें। वे जन्म से वे उपेक्षा के शिकार रहे। कुछ बड़े हुए तो पिता दलसिंगार ठाकुर ने स्कूल भेजना शुरू किया लेकिन साल खत्म हो जाने के बाद भी उन्हें ‘राम गति, देहूं सुमति’ लिखना नहीं आया। लिखना आता भी कैसे ? स्कूल के मास्टर उनसे पढ़ाई नहीं बल्कि नाई का काम लेते। पढ़ना तो जरूरी था क्योंकि नाई को निमंत्रण पत्र पढ़ने होते थे। जैसे-तैसे थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना सीख ही गए।
भिखारी ठाकुर ने प्रचलित नाटक से अलग खुद के नाटक लिखे, जिसे वे ‘नाच’ या ‘तमाशा’ कहते थे। इन नाटकों में उन्होंने समाज में लड़कियों, विधवाओं, दलित-पिछड़ों और बूढ़ों की पीड़ा को जुबान दी है। वे कहते थे- “राजा महाराजाओं या बड़े-बड़े लोगों की बातें ज्ञानी, गुणी, विद्धान लोग लिखेंगे, मुझे तो अपने जैसे मूहदूबर लोगों की बाते लिखने दें।” महिलाओं, दलितों, जाति प्रथा और गरीबों के पक्ष में लिखने के कारण ऊंच जात लोग उनसे बेहद नफ़रत करते थे। अपनी तमाम योग्यता के बावजूद ‘रे’ या ‘भिखरिया’ कहकर पुकारे जाने पर वो बिलबिला जाते। ‘सबसे कठिन जाति अपमाना’, ‘नाई-बहार’ में जाति दंश की पीड़ा उभर कर दिखती है।
उन दिनों दहेज से तंग आकर ऊंची जातियों में बेटी बेचने की प्रथा का प्रचलन था। लड़कियों की शादी बूढ़े या बेमेल दूल्हों से कर दी जाती थी। यह भिखारी ठाकुर की ही हिम्मत थी उन्होंने बिना जान की परवाह किये उस समय इसके विरोध में ‘बेटी बेचवा’ के नाम से नाटक लिखा। उन दिनों बिहार में यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि कई स्थानों पर बेटियों ने शादी करने से मना कर दिया और कई जगहों पर ग्रामीणों ने ही लड़की खरीदने वाले और बेमेल दूल्हों को गांव के बाहर खदेड़ दिया। इसी नाटक का असर था कि 1964 में धनबाद जिले के कुमारधुवी के लायकडीह कोलियरी में प्रदर्शन के दौरान हजारीबाग जिले के पांच सौ से ज्यादा लोगों ने रोते हुए सामूहिक शपथ ली कि वे आज से बेटी नहीं बेचेंगे।
उनकी नाच-मंडली में पचास से भी ज्यादा कलाकार थे और सभी निम्न कही जाने वाली जातियो जैसे बिंद, ग्वाला, नाई, लोहार, कहार, मनसुर, रविदास, कुम्हार, बारी, गोंड, दुसाध आदि जाति से थे। इस रूप में देखें तो भिखारी ठाकुर का बिदेसिया गायन निम्नवर्गीय लोगों का एक सांस्कृतिक आंदोलन था। अपमान के अमानवीय दलदलों से ऊपर उठकर इन उपेक्षित कलाकारों ने गीत-संगीत और नृत्य में अपने समाज के आँसुओं को जगह दी।
भारत के हिंदी भाषी क्षेत्र में नवजागरण लगभग नहीं के बराबर हुआ था, अगर थोड़ा भी बदलाव हुआ है तो भिखारी ठाकुर जैसे क्रांतिकारी लोककलाकार के माध्यम से ही सम्पन्न हुआ है।
साभार- दीपाली तायडे