25 मार्च, 2014 को दैनिक भास्कर ने सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी को हेडलाइन बनाते हुए लिखा था ‘आदिवासियों की जमीन हड़पने के कारण पैदा हो रहे हैं नक्सली : सुप्रीम कोर्ट’
जी हां, ये सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी। दरअसल झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सहित और अन्य कुछ लोगों पर गैर कानूनी तरीके से आदिवासियों की जमीन ट्रांसफर करने का आरोप लगा था। इसी आरोप संबंधी याचिका पर सुनावाई करते हुए जस्टिस केएस राधाकृष्णन और विक्रमजीत सेन की बेंच ने कहा था…
‘आदिवासियों की जमीनों को हड़पा जा रहा है, अगर अदालत या सरकार से संरक्षण नहीं मिलेगा तो वे नक्सली बनने के लिए बाध्य हो जाएंगे।’
सुप्रीम कोर्ट ने तब ये माना था कि जमीन से अलग किए जाने की वजह से आदिवासी नक्सली बनने को बाध्य हो सकते हैं। लेकिन साल 2019 में इसी सुप्रीम कोर्ट ने 11 लाख से अधिक आदिवासियों को जंगल की जमीन से बेदखल करने आदेश दिया है।
13 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने एक NGO की याचिका पर सुनवाई करते हुए 11 लाख से अधिक आदिवासियों को जमीन से बेदखल करने का आदेश दे दिया है। इस आदेश की वजह से करीब 20 राज्यों के आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य लोग प्रभावित होंगे।
सुप्रीम कोर्ट का ये फैसाला इस वजह से भी आया क्योंकि केंद्र सरकार आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने एक कानून का बचाव नहीं कर सकी। NGO की तरफ से जो याचिका दायर गई थी उसमें ये मांग थी कि वे सभी जिनके पारंपरिक वनभूमि पर दावे कानून के तहत खारिज हो जाते हैं, उन्हें राज्य सरकारों द्वारा निष्कासित कर दिया जाना चाहिए।
आसान भाषा में कहे तो आदिवासियों से उन जमीनों का सबूत मांगा गया जिसपर वो रहते आए हैं। कानून, दस्तावेज की भाषा न समझने वाले आदिवासी कहां से सबूत दें ? अदालत में मोदी सरकार पर उन आदिवासियों के प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी थी, जिसे निभाने में सरकार असफल साबित हुई।
केंद्र सरकार को अपने सुप्रीम कोर्ट में अपने ही कानून के समर्थन में दलील पेश करनी थी, जो सरकार नहीं कर पाई। सरकार को जिस कानून का बचाव करना था वो कानून है ‘वन अधिकार कानून’ जिसे संसद ने वर्ष 2006 में पारित किया गया था। इस कानून को फॉरेस्ट एक्ट 2006 कहा जाता है। इस कानून के मुताबिक इन जंगलों में किसी भी गतिविधि को तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि व्यक्ति और समुदाय के दावों का निपटारा नहीं हो जाता।
साथ ही आदिवासी और वनवासियों के लिए काम करने वाली एक संस्था ‘अभियान फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी’ का आरोप है कि सुनवाई के समय केंद्र सरकार का वकील कोर्ट में मौजूद ही नहीं था। इस मामले में केंद्र सरकार की भूमिका बेहद ही गैरजिम्मेदाराना, दोषपूर्ण और संदिग्ध नजर आती है। क्या सरकार सरकार ने अपनी आदिवासी-विरोधी कार्पोरेट नीतियों को विस्तार देने के लिए ऐसा किया?
आदिवासियों के अधिकारों को बचाने में नाकाम रही मोदी सरकार, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विस्थापित होंगे 11 लाख आदिवासी
बता दें कि न्यायपालिका की अवमानना एक्ट में प्रवधान है कि किसी न्यायिक आदेश की आलोचना कंटेप्ट ऑफ कोर्ट नहीं है। इसी आधार बनाकर इस खबर को लिखा जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ये बात अच्छे से जानती है कि आदिवासियों का विस्थापन भारतीय संविधान की पाँचवीं सूची के प्रावधानों का खुल्लम-खुल्ला उल्लघंन है, जिसके तहत आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना अधिकारों की गारन्टी दी गयी है।
अब सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद देशभर से आदिवासियों को जबरदस्ती जंगल की जमीन से बेदखल करने की घटनाएं समाने आएंगी। जाहिर है जमीन को अपनी ‘मां’ कहने वाले आदिवासी आसानी से जमीन खाली नहीं करेंगे, ऐसे में सैनिकों की मदद से बलपूर्वक उन्हें बेदखल किया जाएगा।
जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस अरुण सिन्हा व जस्टिस इंदिरा बैनर्जी की पीठ ने अपना लिखित आदेश 20 फरवरी को जारी किया, जिसमें राज्य सरकारों को उन आदिवासियों को बेदखल करने का स्पष्ट निर्देश दिया है जिनके दावे खारिज कर दिए गए हैं। साथ ही अगली सुनवाई यानि 27 जुलाई तक का समय दिया है।