साल 2012 में छत्तीसगढ़ के एक गांव में सुरक्षा बलों ने 17 लोगों का एनकाउंटर कर दिया था। उसी मामले में न्यायिक आयोग ने फैसला सुनाया है कि वो एनकाउंटर नहीं था बल्कि सुरक्षा बालों ने 17 मासूम लोगों की हत्या की थी जिनमें से 6 तो नाबालिग थे।

आयोग ने जांच में पाया है कि ग्रामीणों की तरफ से सुरक्षा बालों पर कोई फायरिंग नहीं हुई थी। ये सुरक्षा बलों के दावे को झूठा ठहराता है जिनका कहना था कि ग्रामीण लोग माओवादी थे जिनके साथ उनकी मुठभेड़ हुई थी।

आयोग ने सुरक्षा बलों पर और भी गंभीर आरोप लगाए हैं। आयोग ने कहा कि सुरक्षा बलों ने भले ही ग्रामीणों पर “पैनिक” होकर हमला किया हो, लेकिन उसके बाद भी उन्होनें ग्रामीणों को मारा। खैर, पैनिक में भी मासूम लोगों की जान लेना कहाँ तक सही है? और अगर हमला ‘पैनिक’ होकर किया गया था तो मुठभेड़ के अगले दिन भी एक शख्स की उसके घर में हत्या क्यों कर दी गयी?

आपको बता दें कि ये मामला छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के सरकेगुड़ा गाँव का है। ये साल 2012 के जून महीने में हुआ था। तब मुख्यमंत्री रमन सिंह थे और भाजपा की सरकार थी।

सोशल मीडिया पर एक पत्रकार लिखती हैं, “17 गांववालें, जिनमें से 6 बच्चे थे, 2012 में सुरक्षा बालों ने आरोप लगाया कि वो माओवादी थे और उन्हें मार डाला। 7 साल बाद न्यायिक आयोग को उनके आरोप का कोई सबूत नहीं मिला। उन गांववालों की हत्या बिना किसी गलती के की गयी।”

जब हादसे का विरोध हुआ तो उसकी जांच-पड़ताल करने के लिए न्यायिक आयोग बनाया गया था। गांव वालों का कहना था कि वो तो केवल आगामी बीज पंडुम त्यौहार की व्यवस्था पर चर्चा करने के लिए इक्कठा हुए थे। और बिना किसी उकसावे के उनपर सुरक्षा बालों ने हमला कर दिया था।

आयोग की रिपोर्ट में भलिए ‘फ़र्ज़ी एनकाउंटर’ जैसे शब्द का इस्तेमाल ना किया गया हो, लेकिन रिपोर्ट के हिसाब से मारे गए लोग माओवादी नहीं थे। यही बात सुरक्षा बालों की कार्यवाही पर गंभीर सवाल उठाती है क्योंकि उनके हिसाब से मुठभेड़ हुई थी और उसमें माओवादी मारे गए थे।

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