मोदी सरकार ने राफेल डील किस प्रक्रिया के तहत की, इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया था। आज सरकार ने कोर्ट में अपना जवाब दे दिया है। जिसमें बताया है कि सरकार ने साल 2013 की यूपीए सरकार की प्रक्रिया के तहत ही सौदा किया है। सरकार ने ये भी साफ़ किया है की ऑफसेट पार्टनर चुनने में उनकी भूमिका नहीं रही है।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण और अटल सरकार के पूर्व मंत्री अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका देते हुए इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की थी।

सरकार ने बताया कि इस प्रक्रिया के लिए फ़्रांस सरकार से करीब एक साल तक बात चली है। सरकार ने दस्तावेजों में ये भी कहा कि कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी सीसीएस से अनुमति लेने के बाद समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।

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नियामों के मुताबिक विदेशी निर्माता किसी भी भारतीय कंपनी को बतौर ऑफसेट पार्टनर चुनने के लिए स्वतंत्र है यूपीए के ज़माने से चली आ रही रक्षा उपकरणों की खरीद प्रक्रिया के लिए रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 का ही पालन किया है।

हालाँकि मोदी सरकार की ये बात तब झूठ साबित हो जाती है जब खुद डसौल्ट के CEO और फ़्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद के बयान पर गौर करें। जिसके मुताबिक उनके सामने सिर्फ रिलायंस का विकल्प रखा गया है।

जब भारतीय वार्ताकारों ने 4 अगस्त 2016 को 36 राफेल जेट से जुड़ी रिपोर्ट पेश की, तो इसका वित्त और कानून मंत्रालय ने भी आकलन किया और सीसीएस ने 24 अगस्त 2016 को इसे मंजूरी दी। इसके बाद भारत-फ्रांस के बीच समझौते को 23 सितंबर 2016 को अंजाम दिया गया।

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सुप्रीम कोर्ट के 31 अक्टूबर के आदेश के मुताबिक मोदी सरकार ने याचिकाकर्ताओं को यह दस्तावेज उपलब्ध कराया है। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि राफेल विमान खरीद की प्रक्रिया की विस्तृत जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दी जाए। सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई अब 14 नवंबर को करेगा।

जानें- क्या है विवाद

राफेल एक लड़ाकू विमान है। इस विमान को भारत फ्रांस से खरीद रहा है। कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि मोदी सरकार ने विमान महंगी कीमत पर खरीदा है जबकि सरकार का कहना है कि यही सही कीमत है। ये भी आरोप लगाया जा रहा है कि इस डील में सरकार ने उद्योगपति अनिल अंबानी को फायदा पहुँचाया है।

बता दें, कि इस डील की शुरुआत यूपीए शासनकाल में हुई थी। कांग्रेस का कहना है कि यूपीए सरकार में 12 दिसंबर, 2012 को 126 राफेल विमानों को 10.2 अरब अमेरिकी डॉलर (तब के 54 हज़ार करोड़ रुपये) में खरीदने का फैसला लिया गया था। इस डील में एक विमान की कीमत 526 करोड़ थी।

इनमें से 18 विमान तैयार स्थिति में मिलने थे और 108 को भारत की सरकारी कंपनी, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल), फ्रांस की कंपनी ‘डसौल्ट’ के साथ मिलकर बनाती। अप्रैल 2015, में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी फ़्रांस यात्रा के दौरान इस डील को रद्द कर इसी जहाज़ को खरीदने के लिए में नई डील की।

 

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