बाबरी मस्जिद विध्वंस का नेतृत्व करने वाली बीजेपी भले ही 2 सीटों से उठकर देश की सत्ता पर काबिज़ हो गई हो, लेकिन विध्वंस को अंजाम देने वाले कई कारसेवक आज भी गुमनामी और लाचारी की ज़िंदगी ग़ुज़ार रहे हैं।

ऐसे ही एक कारसेवक भोपाल के सुआखेड़ा गांव के रहने वाले 56 वर्षीय अंचल सिंह मीणा हैं। जो आज से तकरीबन 26 साल पहले 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए कारसेवक के रूप में अयोध्या पहुंचे थे। विध्वंस के दौरान उनपर मस्जिद के गुंबद का मलबा गिर गया था, जिससे वह अपाहिज हो गए थे।

26 सालों से वह ज़मीन पर घिसट-घिसट कर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। सिर से लेकर पैर तक शरीर के हर हिस्से पर ज़ख्म हैं और दिलो-दिमाग़ के ज़ख्म तो अभी भी ताज़ा हैं।

यह ज़ख़्म उनसे सवाल करते हैं कि इतना कुछ खोने के बाद उन्हें आख़िर क्या हासिल हुआ। नेताओं ने तो विध्वंस से अपनी सियासत चमका ली और सत्ता की सीढ़ियां चढ़ गए। लेकिन उन्हें इससे लाचारी के सिवा क्या मिला।

धर्म संसद में बोले शंकराचार्य- राम मंदिर का हल ‘नफ़रत’ से नहीं सिर्फ अदालत से ही निकलना चाहिए

ऐसा नहीं है कि अंचल के इस कदम का ख़ामियाज़ा सिर्फ उन्हें अकेले भुगतना पड़ा, उनके पूरे परिवार को इसकी कीमत चुकानी पड़ी। अंचल के अपाहिज होने के बाद उनकी पत्नी पान बाई को अकेले ही पूरे घर की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ी, जिसके लिए उन्होंने कफी संघर्ष किया।

न्यूज़18 को दिए इंटरव्यू में अंचल ने अपना दर्द कुछ इस तरह बयां किया कि शुरुआती दिनों में तो बीजेपी के नेता उनसे मिलने आए, लेकिन बाद में किसी ने उनकी सुध नहीं ली।

उन्होंने कहा कि मुझे कोई नहीं देखता सिर्फ भगवान राम देखते हैं। मैं भगवान राम के भरोसे ज़िंदगी ग़ुज़ार रहा हूं।

देश का ‘सविंधान’ उसी दिन ध्वंस हो गया था जिस दिन ‘बाबरी मस्जिद’ गिराई गई थी : शरद यादव

ग़ौरतलब है कि एक बार फिर अयोध्या में नेताओं की हुंकार के साथ कारसेवकों की भीड़ इकट्ठा हो रही है। पुराने नेताओं के साथ ही कुछ नए नेता भी मंदिर निर्माण के ज़रिए सियायत चमकाने में जुट गए हैं।

ऐसे में हम बस उम्मीद कर सकते हैं कि यह कारसेवक अंचल की कहानी से कुछ नसीहत लेंगे और अब सियासत का मोहरा नहीं बनेंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here